गुरुवार, 30 मई 2019

क्या आदिवासी वर्ण एवं जाति व्यवस्था की उपज हैं?

ग्लैडसन डुंगडुंग

भील आदिवासी महिला डाक्टर पायल तड़वी को कार्यस्थल पर मानसिकरूप से प्रताड़ित करनेवाली तीन सीनियर्स डा. हेमा आहूजा, डा. भक्ति और डा. अंकिता खण्डेलवाल ने वाट्सप ग्रुप में पायल पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘‘तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्कल नहीं होती... तु आरक्षण के कारण यहां आई हैं... तेरी औकात है क्या हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की... तु किसी भी मरीज को हाथ मत लगायाकर वे अपवित्र हो जायंगे... तु आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी...! डा. पायल तड़वी इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पायी और उसने अपने कमरे में खुदकुशी कर ली। देश के मेडिकल कालेज, इंजीनियरिंग कालेज एवं अन्य विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले आदिवासी विद्यार्थियों के अलावा सरकारी एवं गैर-सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदिवासियों को इसी तरह की प्रताड़नाओं से प्रतिदिन गुजरना पड़ता है। उनकी प्रतिभा, क्षमता और गुणों को नाकारा जाता है। चूंकि आदिवासियों को हमेशा ही ‘नीच जाति’ से संबोधित किया जाता है इसलिए इन प्रश्नों का उत्तर ढूढ़ना बहुत जरूरी है कि क्या आदिवासी समाज भी वर्ण एवं जाति व्यवस्था की उपज है? क्या आदिवासियों को जाति से संबोधित करना सही है? क्या आदिवासियों को जाति प्रमाण-पत्र देना उचित है? 

सनातन हिन्दू समाज का मूल आधार वर्ण व्यवस्था है। ऐसा मान्यता है कि ‘‘ब्राह्मा’’ ने अपने विभिन्न अंगों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्रों को जन्म दिया। यही वर्ण व्यवस्था बाद में काम के आधार पर जाति एवं उप-जातियों में विभाजित होकर भारत में एक विस्तृत जातीय समाज का रूप ले लिया। भारतीय जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का ही एक विस्तृत रूप है। आज इसी व्यवस्था ने देश को कई टूकड़ों में बांट दिया है और कमजोर तबके के लोगों के शोषण का मुख्य कारण बना हुआ है। इस व्यवस्था ने आदिवासी समाज को भी निगलने का काम किया है। इसलिए यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी समाज वर्ण एवं जाति व्यवस्था का हिस्सा है? इसमें पहली बात तो यह है कि सनातन हिन्दू धर्म के धर्मग्रन्थों में आदिवासियों को असूर, दानव, राक्षस, वानर, भालू, इत्यादि कहा गया है यानी सनातन हिन्दू धर्म के अनुसार आदिवासी मानव नहीं हैं। 

समाजशास्त्र के अध्ययन में बताया गया है कि भारत में वर्ण एवं जाति व्यवस्था के अन्तर्गत 3,000 जातियां एवं 25,000 उप-जातियां हैं, जिनमें से सिर्फ ‘ब्राह्मण’ जाति के लोगों को ही धर्मग्रांथ पढ़ने का अधिकार है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो सनातन हिन्दू धर्म के अन्तर्गत सिर्फ ब्राह्मण जाति के लोग ही पुजारी बन सकते हैं। मंदिर एवं अन्य धर्मांस्थलों में जितना भी चढ़ावा चढ़ाया जाता है उसपर सिर्फ ब्राह्मनों का ही हक है पूरे सनातन हिन्दू समाज के लोगों का नहीं। वहीं भारत में 744 आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं, जिनमें सभी समुदायों के पास अपना-अपना पूजारी होता है। उदाहरण के लिए मुंडा आदिवासी समुदाय में पुजारी को पाहन, संताल समुदाय में नायके, बैगा आदिवासी समुदाय में ‘बैगा’, हो आदिवासी समुदाय में देवरी एवं उरांव समुदाय में पूजारी को पाहन कहा जाता है। यदि आदिवासी वर्ण एवं जाति व्यवस्था का हिस्सा होते हो उनका अपना पूजारी नहीं होता बल्कि वे ब्राह्मण पर ही आश्रित होते। 

आदिवासी समाज का मूल आधार सामूहिकता, स्वायत्तता, समानता, न्याय एवं भाईचारा है। इसलिए आदिवासी समाज में खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, उंच-नीच, गरीब-अमीर, लड़का-लड़की या अन्य किसी भी तरह का भेदभाव नहीं है। आदिवासी समाज में हरकोई सामुदाय में रहकर अपना इच्छानुसार जीते हैं। विश्व प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं संस्कृतिककर्मी डा. रामदयाल मुंडा ने अपनी पुस्तक ‘‘आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल’’ में आदिवासी समाज को इस प्रकार परिभाषित किया है - जातिविहीन, वर्गविहीन, समानता पर आधारित समाज, समुदाय के इर्द-गिर्द निर्मित अर्थव्यवस्था, प्रकृति के साथ सहजीवन, सर्वसम्मति पर आधारित स्वशासन, इज्जत, सम्मान और स्वायत्तता हेतु संघर्षषील, सामंजस्य पर निर्मित इतिहास, लोगोन्मुख कला, नृत्य, साहित्य और समय के अनुकूल परिवर्तन। क्या इस परिभाषा में कहीं से भी वर्ण और जाति व्यवस्था दिखाई पड़ता है? ब्राह्मणवादियों, मनुवादियों एवं जातिवादियों के द्वारा आदिवासियों को नीच जाति कहकर संबोधन करना या तो उनकी अज्ञानता का प्रमाण है या आदिवासी पहचान एवं अस्मिता को समाप्त करने का एक बड़ा षड्यंत्र। इसे आदिवासियों को समझना पड़ेगा।    

सामुदाय आधारित आदिवासी समाज और वर्ण एवं जाति आधारित सनातन हिन्दू समाज में जमीन-आसमान का फर्क है। सनातन हिंदू समाज में वर्ण, जाति, उप-जाति, लिंग एवं रंग के आधार पर भेदभाव भरा पड़ा है। इस समाज में सबके लिए एक दायरा बांध दिया गया है। इसका सबसे ज्यादा शिकार लड़की और महिलाएं होती हैं। मादा-भूरण हत्या, दहेज-हत्या एवं वर्जिनिटी टेस्ट इसके प्रमुख उदाहरण हैं। लड़की होने की वजह से करोड़ों लड़कियों की हत्या कर दी गई, मांग के अनुसार दहेज नहीं मिलने पर लाखों महिलाओं को जिन्दा जला दिया गया और वर्जिनिटी टेस्ट में खरा नहीं उतरने के कारण सैकड़ों लड़कियों का जीवन तबाह हो गया। क्या देश में एक भी आदिवासी परिवार मिलेगा जिसने मादा भूरण हत्या किया हो? क्या आदिवासी समाज में दहेज हत्या का कोई केस है? क्या एक भी आदिवासी लड़की मिलेगी जिसे वर्जिनिटी टेस्ट के अमानवीय दौर से गुजरना पड़ा हो? आज भी वर्ण एवं जातीय समाज की अधिकांश लड़कियां और महिलाएं किसी न किसी रूप में चहारदीवारी के अंदर कैद हैं। उनके लिए नियम तय कर दिये गये हैं जबकि आदिवासी समाज की लड़कियां एवं महिलाएं आजाद हैं। 

हमारे देश के वर्ण एवं जातीय समाज में गोरापन सुन्दरता का पैमाना है, जो समाज में रंगभेद और नफरत को जन्म देता है जबकि आदिवासी समाज में सुन्दर-कुरूप जैसा कोई अवधारणा नहीं है बल्कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य बराबर है। इसी तरह वर्ण एवं जातीय समाज में ‘सेक्स’ को पवित्रता और इज्जत से जोड़ा जाता है तथा शादी से पूर्व किया गया सेक्स को गलत माना जाता है। यही वजह है कि शादी की पहली रात को विस्तर पर सफेद तवालिया लगाकर लड़की का वर्जिनिटी टेस्ट किया जाता है और बलात्कार पीड़ित लड़की के साथ कोई शादी करना नहीं चाहता है। आदिवासी समाज में ‘सेक्स’ को एक आम प्राकृतिक प्रक्रिया माना जाता है। इसके लिए कोई हैय-तौबा नहीं करता है। इसलिए शादी के दिन कोई आदिवासी लड़की को वर्जिनिटी टेस्ट जैसा अमानवीय प्रताड़ना से गुजरना नहीं पड़ता है। वर्ण एवं जातीय समाज में लड़की और महिलाओं को घर और परिवार का इज्जत के रूप में पेश किया जाता है। इसलिए लड़की को अपने पसंद से शादी करने को परिवार का नाक कटवाने की संज्ञा दी जाती है। आदिवासी समाज में ऐसा अवधारणा ही नहीं है इसलिए लड़कियां भी लड़कों की तरह अपने लिए जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र होती हैं। इसके अलावा वर्ण एवं जातीय समाज में श्रेष्ठ-घटिया, सुन्दर-कुरूप एवं पाप-पून्य जैसा सोच व्यवहार में है जबकि आदिवासी समाज में ऐसा कोई अवधारणा नहीं है। यदि समाज के हरेक नियम और लोगों व्यवहारों की तुलना की जाये तो आदिवासी समाज वर्ण एवं जातीय समाज से बहुत बेहतर स्थिति दिखाई देगा तथा इससे यह भी प्रमाणित होगा कि आदिवासी समाज वर्ण एवं जाति व्यवस्था का हिस्सा नहीं है। 

यहां प्रश्न उठता है कि वर्ण एवं जातीय सनातन हिन्दू समाज आदिवासियों को जाति व्यवस्था में क्यों डालना चाहता है? यह स्थापित हो चुका है कि आदिवासी ही भारत के प्रथम निवासी है। आदिवासी का अर्थ है आदिकाल से निवास करने वाले लोग। इस सच्चाई को खत्म कर अपने को भारत का असली निवासी साबित करने के लिए आर्य लोग एड़ी-चोटी एक किये हुए हैं। जब आदिवासी जाति व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगे तब उनकी पहचान समुदाय से जातीय हो जायेगी और आर्य लोग खूद को देश का असली निवासी घोषित करने में कामयाब हो जायेंगें। मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा इस बात से अवगत थे इसलिए उन्होंने आदिवासी शब्द को स्थापित किया। इसके बावजूद गांधी ने आदिवासियों के लिए गिरिजन शब्द का उपयोग किया। जब संविधानसभा में बहस हो रही थी तब जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था कि हमलोग आदिवासी हैं और हमारे लिए इसके अलावा दूसरा शब्द नहीं चाहिए। लेकिन जातिवाद से ग्रासित नेताओं ने आदिवासी शब्द को संविधान के मसौदा से हटा दिया। इसके जगह पर अनुसूचित जनजाति शब्द का उपयोग करते हुए आदिवासी समाज में जाति थोप दिया गया। 'Scheduled Tribe' का हिन्दी रूपंतरण ‘अनुसूचित जन’ होना चाहिए था न कि 'जनजाति'। यहां ‘जाति’ शब्द को अलग से जोड़ दिया गया ताकि धीरे-धीरे आदिवासियों को भी वर्ण और जाति व्यवस्था का हिस्सा बनाया जा सके। निश्चित तौर पर यह एक षड्यंत्र था, जिसके लिए डा. भीमराव अम्बेदकर दोषी हैं। फलस्वरूप, सरकार आदिवासियों को अपनी जाति प्रमाणित करने के लिए जाति प्रमाण-पत्र बांटने लगी। 

इतना ही नहीं आदिवासियों की पहचान और अस्मिता को खत्म करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार के द्वारा अभियान चलाया गया। सन् 1993 में देशज लोगों के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के अवसर पर भारत के प्रतिनिधि जयंत प्रसाद ने जेनेवा में देशज लोगों के अन्तर्राष्ट्रीय कार्यदल के सम्मुख स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत में आदिवासी नहीं हैं। इस तरह से देश के 10 करोड़ आदिवासियों के अस्तित्व को नाकारा गया। इसी तरह भारत सरकार द्वारा गठित अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग ने आदिवासियों की मूलभूत विशिष्टताओं को इस प्रकार वर्णित किया है - वनवासी, आदिवासी बोली, जीववाद, आदिम व्यवसाय, माॅंसभक्षी, नंगा या अर्द्धनग्न रहना, खानाबदोश, मद्यपान एवं नृत्य में लीन रहना। इसी तरह आदिवासी पहचान को खत्म करने के लिए आर.एस.एस. वनवासी कल्याण आश्रम के द्वारा देशभर में अभियान चला रहा है। इसी साजिश के तहत तथाकथित आर.एस.एस. विश्व हिन्दू परिषद् एंव भारतीय जनता पाटी से जुड़े लोग आदिवासियों को वनवासी के नाम से पुकारना प्रारंभ किये जो आज तक जारी हैं। आदिवासी शब्द से संघ परिवार को घबराहट महसूस होती है इसलिए वह आदिवासी शब्द को हटाकर वनवासी शब्द का प्रयोग करता है। वनवासी शब्द को देखा जाये तो इसका अर्थ जंगल में रहने वाले लोग यानी ‘जंगली’। ‘जंगली’ का मतलब है जंगल में विचरण करनेवाले लोग। हकीकत में इस निष्ठा घटाने वाले शब्द का अर्थ है ‘असभ्य आदमी’। अर्थात वह व्यक्ति जो कभी प्रगति नहीं कर सकता और हमेषा अज्ञानता, अंधकार में और विकास के बगैर रहना चाहता है। आदिवासी के स्थान पर ‘वनवासी’ शब्द का प्रयोग, आदिवासियों के लिए सिर्फ एक गाली की तरह ही नहीं है लेकिन यह हमारे अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करना भी है। 

अंततः 13 सितंबर 2007 को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा आदिवासियों के लिए जारी घोषणा-पत्र को भारत सरकार को स्वीकार करना पड़ा। फिर भी सरकार का रवैया नहीं बदला है। इसी बीच 5 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार एस.एल.पी. क्रि. न. 10367 आफ 2010 में फैसला देते हुए कहा है कि देश के 8 प्रतिशत आदिवासी ही भारत देश के प्रथम निवासी और मालिक हैं तथा 92 प्रतिशत लोग आक्रमणकारी या व्यापारियों के संतान हैं। हमें यह भी जानना चाहिए कि दुनिया के 92 वैज्ञानिकों ने जीनोम प्रोजेक्ट के तहत डी.एन.ए. की जांच करते हुए साबित किया है कि आदिवासी ही भारत देश के असली निवासी हैं, जो देश में लगभग 40,000 साल पहले से रह रहे हैं जबकि आर्यों का अस्तित्व पिछले मात्र 3500-4000 वर्षों का है। इसका अर्थ यह है कि हमारे देश में वर्ण एवं जाति की उत्पति से कई हजार वर्ष पूर्व आदिवासियों का समुदाय आधारित समाज अस्तित्व में था। इसलिए इस सच्चाई को नहीं नाकारना चाहिए कि आदिवासी समाज देश के ‘वर्ण और जाति’ व्यवस्था से हटकर सामूहिकता, समानता, स्वायत्तता, न्याय और भाईचारा वाला समाज है। आदिवासी समाज ‘वर्ण एवं जाति’ व्यवस्था के अन्तर्गत नहीं आता है इसलिए यदि आदिवासी उच्च जातियों में नहीं गिने जाते हैं तो वे नीच जाति भी नहीं हैं। आदिवासी जाति नहीं बल्कि समुदाय है इसलिए आदिवासियों को नीच जाति कहकर संबोधित करना आदिवासियों के साथ अन्याय है। आदिवासी वर्ण एवं जाति व्यवस्था के हिस्सा नहीं हैं इसलिए उन्हें जाति प्रमाण-पत्र नहीं देना चाहिए बल्कि इसके जगह पर जन्म प्रमाण-पत्र में ही एक कालम में उनका समुदाय लिखा जाना चाहिए। डा. पायल तड़वी जैसे लाखों आदिवासियों के साथ किया जा रहा भेदभाव जातीय नहीं बल्कि नस्लीय है, जिसे तुरंत रोका जाना चाहिए।  

3 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार लेख,पर संविधान की शब्दावली ऐसी हैं कि लोग समुदाय को ही जाति मान बैठे हैं. और हा आपका आदिवासियों और गैर आदिवासियों का जो अंतर हैं वो क्या सभी अनुसूचित जनजातियों पर लागु किया जा सकता हैं. जैसे कि मीणा जनजाति में गैर आदिवासियों वाले लक्षण ज्यादा पाए जा रहे हैं. क्या उन्हें आदिवासी कह पाएंगे.

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  2. डा पायल की मा मुस्लिम पति मुस्लिम फिर एस सी कोटा से कैसे एडमीशन हो गया

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  3. डॉ अंबेडकर जी के उपर बेबुनियाद आरोप लगाना बंद करें।

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